डा धन सिंह रावतः अब विरोधी भी कहने लगे हैं कि बंदे में कुछ तो बात है

कहते हैं दिवंगत विभूतियों के प्रति श्रद्धा का भाव और आदर्शों से मिली सीख के अनुशरण में वह ताकत होती है जिससे दुनिया की कोई भी जंग फतह की जा सकती है। और जीत का मजा तब और बढ़ जाता है जब विरोधी भी यह कहने पर विवश हो जाएं कि हम ही गलत ट्रैक पर थे, बंदे में कुछ तो बात है। ये कहावतें श्रीनगर विधान सभा के विधायक और प्रदेश के विद्यालयी शिक्षा प्राथमिक, माध्यमिक, चिकित्सा स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, सहकारिता, उच्च शिक्षा ,संस्कृत शिक्षा मंत्री डा धन सिंह रावत पर चरितार्थ हो रही हैं।

वर्ष 2017 में डा धन सिंह रावत पहली बार श्रीनगर विधान सभा से चुनाव जीत कर विधान सभा पहुंचे, और दो साल से अधिक के कोरोना लॉकडाउन में ठप हुई गतिविधियों को छोड़कर शेष कार्यकाल में भी उन्होंने सहकारिता, उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन जैसे महकमों को ढर्रे पर लाने में अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। क्षेत्र से लेकर प्रदेश और प्रदेश से लेकर देश भर में उनकी कार्यप्रणाली कई जगहों पर अनुकरणीय उदाहरणों के केंद्र में रही।

क्षेत्र को विकास के पथ पर आगे बढ़ाते हुए डा धन सिंह रावत ने दिवंगत विभूतियों के त्याग और बलिदान को भी पूरे मनोयाग व जिम्मेदारी के साथ जीवंत किया। सुमाड़ी के पंथ्या दादा, चित्रकार मौलाराम तोमर, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, शिवानंद नौटियाल, टिंचरी माई आदि विभूतियों ने समाज की बेहतरी के लिए जो त्याग किया उसे भला कौन भुला सकता है। जाने कौन से कारण रहे जब आजादी के सात दशक बाद भी क्षेत्र की यह दिवंगत विभूतियां हासिए पर रही।
डा धन सिंह रावत ही ऐसा माई का लाल साबित हुआ जिसने अपने क्षेत्र की उन विभूतियों के शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान की गाथाओं में जमीं दशकों की गर्द को साफ कर उन्हें फिर से जीवंत कर नई पीढ़ियों के समक्ष रखा।
शायद यह उन्हीं विभूतियों का शुभाशीष रहा कि मौकापरस्त ताकतों के तमाम षडयं़त्रकारी मंसूबों के बावजूद उन्हें जीत हासिल हुई और चालबाजों को चुनाव में उनके सामने घुटने टेकने पड़े।
वक्त ने अब करवट ले ली है। गत दिवस मंत्रालयों के आवंटन में पार्टी हाईकमान ने धनदा पर बड़ा भरोसा किया है। शिक्षा का पूरा दारोमदार धनदा के जिम्मे है। चुनाव में उनके विरोधी रहे लोग भी अब इस बात को अवश्य स्वीकार करेंगे कि धनदा को पराजित करने का प्रयास करके वह सच में अपने क्षेत्र, अपनी मिट्टी और उन दिवंगत विभूतियों की एक तरह से अनदेखी कर रहे थे। क्योंकि सच तो यह है कि जहां समाज के बड़े हित की बात हो तो छोटे व निजी हितों और दलगत चोचलों के बजाए काबिलियत को ही अवसर देना चाहिए, इसी में सब की भलाई है। सिर्फ विरोध के लिए विरोधी हो जाना कतई भी समझदारी नहीं है।

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